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जनतंत्र के पहरेदार

नए कदम
नए कदम
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1947 की आजादी के बाद यह तय हुआ ही देश अब प्रजा है है। कोई राजा नहीं, कोई नौकर नहीं। सब एक है।

एक सपना जो सच होने वाला था। आजाद होने का, खुद मुख्तार होने का।

एक सपना।

पर ऐसा हो नहीं पाया। कहाँ कमी रह गयी? ऐसा क्या हुआ की हम आज भी गुलाम है?

पहले यह समझना जरूरी है की क्या हम आज भी गुलाम है!

हमारे तंत्र में कितने ही सरकारी दफ्तर है। जन्म से ले कर, बुढ़ापे तक हमको कितने ही सरकारी दफ्तरों में काम पड़ता है। और कितना काम हो पता है बिना रिश्वत के, सबको पता है। यह है, एक तरह की गुलामी।

यह उदाहरण एक कदम आगे ले जाते हें। एक सरकारी नौकर की नज़र से। उसकी गुलामी है, अपने अफसर की। अंदर की बात है, यह सब लोग काम करते है, एक cut लेने के लिए और इनके सिर पर बैठे “हैड ऑफ द” डिपार्टमेंट “मिस्टर मिनिस्टर” के लिए।

यह सब पैसा कहाँ से आता है? सरकारी खजाने से, जो की sanction होता है public के काम करने के लिए और public की पॉकेट से जो आते हैं अपने “ज़बर्दस्ती” रुके हुए काम करवाने के लिए।

बस और कहा नहीं जाता। यह ऐसी दास्तां है की खत्म नहीं होगी।

तो छुपा हुआ राजा कौन है? मिस्टर मिनिस्टर।

यही कहानी हर विभाग हर समाज में है। राजनीति का खिलाड़ी ही राजा है। उसके पास ताकत है। ताकत पैसे की, ताकत गुंडों की, ताकत पहुँच की। और वो फिर सब से ऊपर हो जाता है। हम सब से अलग, हम सब से ऊपर। और बन जाता है राजा।

और हम गुलाम।

एक आंदोलन हुआ था। अन्ना जी का। पहलीबर यह समझ आया की, हम राजा है। पता चला की जो हमारे सेवक होने चाहिए थे वो सिर पर बैठें है।

System पूरी तरहा बिगड़ चुका है। अन्ना को भी खुद को सच्चा साबित करना पड़ता है। और किसको? उनको, जो सबसे बड़े मक्कार है, देश द्रोही है, भक्षक है, चोर है।

आशा है की एक सशक्त लोकपाल आयेगा जो मुझेकों, हमको, हमसबको यह right देगा ही हम हमारे सेवकों से पूछ सकें की काम क्यों नहीं हुआ?

पर यह होगा की नहीं इसमें कुछ संशये है। इस मौके पर स्वर्गीय जगजीत सिंह जी की गयी हुईं पंक्ति याद आती है

“मेरा कातिल ही मेरा मुनसीब है, क्या मेरे हक़ में फेसला देगा”

 

जय हिन्द।

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